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वजूद मिट गया परवानों के सँभलने तक | शाही शायरी
wajud miT gaya parwanon ke sambhalne tak

ग़ज़ल

वजूद मिट गया परवानों के सँभलने तक

सालेह नदीम

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वजूद मिट गया परवानों के सँभलने तक
धुआँ ही उठता रहा शम्अ के पिघलने तक

किसे नसीब हुई उस के जिस्म की ख़ुश्बू
वो मेरे साथ रहा रास्ता बदलने तक

अगर चराग़ की लौ पर ज़बान रख देता
ज़बान जलती भी कब तक चराग़ जलने तक

जहाँ भी ठहरोगे रुक जाएगा तुम्हारा वजूद
तुम्हारे साथ चलेगा तुम्हारे चलने तक

अभी से राह में नज़रें बिछा के मत बैठो
पलट के आएगा वो आफ़्ताब ढलने तक

हवा का क्या है न जाने ये कब बदल जाए
बदल चुकेगा ज़माना तिरे बदलने तक

सुकून किस को मिला ज़िंदगी की राहों में
ग़ुबार उठता रहा क़ाफ़िला निकलने तक