वज्द हो बुलबुल-ए-तस्वीर को जिस की बू से
उस से गुल-रंग का दा'वा करे फिर किस रू से
शम्अ' के रोने पे बस साफ़ हँसी आती है
आतिश-ए-दिल कहीं कम होती है चार आँसू से
एक दिन वो था कि तकिया था किसी का बाज़ू
अब सर उठता ही नहीं अपने सर-ए-ज़ानू से
नज़्अ' में हूँ मिरी मुश्किल करो आसाँ यारों
खोलो तावीज़-ए-शिफ़ा जल्द मिरे बाज़ू से
शोख़ी-ए-चश्म का तू किस की है दीवाना 'अनीस'
आँखें मलता है जो यूँ नक़्श-ए-कफ़-ए-आहू से
ग़ज़ल
वज्द हो बुलबुल-ए-तस्वीर को जिस की बू से
मीर अनीस