वैसे तो इक दूसरे की सब सुनते हैं
जिन को सुनाना चाहता हूँ कब सुनते हैं
अब भी वही दिन रात हैं लेकिन फ़र्क़ ये है
पहले बोला करते थे अब सुनते हैं
शक अपनी ही ज़ात पे होने लगता है
अपनी बातें दूसरों से जब सुनते हैं
महफ़िल में जिन को सुनने की ताब न थी
वो बातें तन्हाई में अब सुनते हैं
जीना हम को वैसे भी कब आता था
बदल गए हैं जीने के ढब सुनते हैं
आँखें छू कर देखती हैं आवाज़ों को
कान दुहाई देते हैं लब सुनते हैं
सुनते ज़रूर हैं दुनिया वाले भी 'शहज़ाद'
कहने की ख़्वाहिश न रहे तब सुनते हैं
ग़ज़ल
वैसे तो इक दूसरे की सब सुनते हैं
शहज़ाद अहमद