वहशतों का कभी शैदाई नहीं था इतना
जैसे अब हूँ तिरा सौदाई नहीं था इतना
बार-हा दिल ने तिरा क़ुर्ब भी चाहा था मगर
आज की तरह तमन्नाई नहीं था इतना
इस से पहले भी कई बार मिले थे लेकिन
शौक़ दिलदादा-ए-रुस्वाई नहीं था इतना
पास रह कर मुझे यूँ क़ुर्ब का एहसास न था
दूर रह कर ग़म-ए-तन्हाई नहीं था इतना
अपने ही सायों में क्यूँ खो गईं नज़रें 'ख़ातिर'
तू कभी अपना तमाशाई नहीं था इतना
ग़ज़ल
वहशतों का कभी शैदाई नहीं था इतना
ख़ातिर ग़ज़नवी

