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वहशतें कैसी हैं ख़्वाबों से उलझता क्या है | शाही शायरी
wahshaten kaisi hain KHwabon se ulajhta kya hai

ग़ज़ल

वहशतें कैसी हैं ख़्वाबों से उलझता क्या है

उबैदुल्लाह अलीम

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वहशतें कैसी हैं ख़्वाबों से उलझता क्या है
एक दुनिया है अकेली तू ही तन्हा क्या है

दाद दे ज़र्फ़-ए-समाअत तो करम है वर्ना
तिश्नगी है मिरी आवाज़ की नग़्मा क्या है

बोलता है कोई हर-आन लहू में मेरे
पर दिखाई नहीं देता ये तमाशा क्या है

जिस तमन्ना में गुज़रती है जवानी मेरी
मैं ने अब तक नहीं जाना वो तमन्ना क्या है

ये मिरी रूह का एहसास है आँखें क्या हैं
ये मिरी ज़ात का आईना है चेहरा क्या है

काश देखो कभी टूटे हुए आईनों को
दिल शिकस्ता हो तो फिर अपना पराया क्या है

ज़िंदगी की ऐ कड़ी धूप बचा ले मुझ को
पीछे पीछे ये मिरे मौत का साया क्या है