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वहशत के सौ रंग दिखाने वाला मैं | शाही शायरी
wahshat ke sau rang dikhane wala main

ग़ज़ल

वहशत के सौ रंग दिखाने वाला मैं

माहिर अब्दुल हई

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वहशत के सौ रंग दिखाने वाला मैं
ख़ुद अपनी ज़ंजीर बनाने वाला मैं

रोज़ कुआँ खोदूँ तो प्यास बुझाऊँ रोज़
दरियाओं से प्यास बुझाने वाला मैं

माज़ी के बे-बर्ग शजर पर बैठा हूँ
मुस्तक़बिल के गीत सुनाने वाला मैं

कैसे मुमकिन है अपनों पर वार करूँ
दुश्मन की चोटें सहलाने वाला मैं

अंदर अंदर दर्द की लहरें ऊपर से
हर दम हँसने और हँसाने वाला मैं

बाग़ों को वीरान बनाने वाले लोग
सहराओं में फूल खाने वाला मैं

सदियों से मस्मूम हवा की ज़द पर हूँ
उम्मीदों की फ़ज़्ल उगाने वाला मैं

देखो कब तक पाँव जमाए रहता हूँ
ऊँची लहरों से टकराने वाला मैं