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'वहशत'-ए-मुब्तला ख़ुदा के लिए | शाही शायरी
wahshat-e-mubtala KHuda ke liye

ग़ज़ल

'वहशत'-ए-मुब्तला ख़ुदा के लिए

वहशत रज़ा अली कलकत्वी

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'वहशत'-ए-मुब्तला ख़ुदा के लिए
जान देता है क्यूँ वफ़ा के लिए

आश्ना सब हुए हैं बेगाने
एक बेगाना-आश्ना के लिए

हम ने आलम से बेवफ़ाई की
एक माशूक़-ए-बेवफ़ा के लिए

था उसे ज़ौक़-ए-आशिक़-आज़ारी
ख़ूब मैं ने मज़े जफ़ा के लिए

ग़ालिब आई फ़रामुशी उस की
वादा तड़पा किया वफ़ा के लिए

ये भी तेरी गदा-नवाज़ी थी
मैं ने बोसे जो नक़्श-ए-पा के लिए

ज़ौक़-ए-नज़्ज़ारा ने किया है ख़ाक
सुर्मा हूँ चश्म-ए-सुर्मा-सा के लिए

जुस्तुजू नंग-ए-आरज़ू निकली
दर्द रुस्वा हुआ दवा के लिए

बढ़ चली है बहुत हया तेरी
मुझ को रुस्वा न कर ख़ुदा के लिए

है ख़मोशी मुझे ज़बाँ 'वहशत'
फ़िक्र क्या अर्ज़-ए-मुद्दआ के लिए