वहशत-ए-ग़म से रात भर यारो
रोया मैं फिर हुई सहर यारो
जाना चाहें भी तो किधर जाएँ
खो गए सारे रहगुज़र यारो
ज़ेहन-ओ-दिल से निकाल कर उस को
कर दिया ख़ुद को मो'तबर यारो
उम्र भर गर्द-ए-राह की सूरत
मैं जो करता रहा सफ़र यारो
आई ख़ाक-ए-वतन की याद मगर
लौट कर फिर गए न घर यारो
है तमन्ना नई फ़ज़ा की मगर
कट गए अपने बाल-ओ-पर यारो
चाहे जितना ख़याल रक्खो मिरा
उम्र मेरी है मुख़्तसर यारो
ग़ज़ल
वहशत-ए-ग़म से रात भर यारो
ख़ान रिज़वान