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वहशत-ए-ग़म से रात भर यारो | शाही शायरी
wahshat-e-gham se raat bhar yaro

ग़ज़ल

वहशत-ए-ग़म से रात भर यारो

ख़ान रिज़वान

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वहशत-ए-ग़म से रात भर यारो
रोया मैं फिर हुई सहर यारो

जाना चाहें भी तो किधर जाएँ
खो गए सारे रहगुज़र यारो

ज़ेहन-ओ-दिल से निकाल कर उस को
कर दिया ख़ुद को मो'तबर यारो

उम्र भर गर्द-ए-राह की सूरत
मैं जो करता रहा सफ़र यारो

आई ख़ाक-ए-वतन की याद मगर
लौट कर फिर गए न घर यारो

है तमन्ना नई फ़ज़ा की मगर
कट गए अपने बाल-ओ-पर यारो

चाहे जितना ख़याल रक्खो मिरा
उम्र मेरी है मुख़्तसर यारो