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वहीं से हद मिली है जा पहुँचता कू-ए-जानाँ तक | शाही शायरी
wahin se had mili hai ja pahunchta ku-e-jaanan tak

ग़ज़ल

वहीं से हद मिली है जा पहुँचता कू-ए-जानाँ तक

अब्र अहसनी गनौरी

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वहीं से हद मिली है जा पहुँचता कू-ए-जानाँ तक
रसाई सालिको जब अक़्ल कर ले हद्द-ए-इम्काँ तक

जुनूँ में दस्त-ए-लाग़र का है क़ब्ज़ा उस बयाबाँ तक
जहाँ सौ मंज़िलें पड़ती हैं दामन से गरेबाँ तक

मिरे दस्त-ए-जुनूँ का ज़ोर और फिर ज़ोर भी कैसा
कि हमराह-ए-गरेबाँ खींचे लाता है रग-ए-जाँ तक

तुम्हें तो खेल था नज़रें मिला कर मुँह छुपा लेना
यहाँ नश्तर हज़ारों रुक गए आ कर रग-ए-जाँ तक

कफ़न में कोई देखे आज उन हाथों की मजबूरी
रहा करते थे गर्दिश में जो दामन से गरेबाँ तक