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वही साहिल वही मंजधार मुझ को | शाही शायरी
wahi sahil wahi manjdhaar mujhko

ग़ज़ल

वही साहिल वही मंजधार मुझ को

ग़ुलाम मुर्तज़ा राही

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वही साहिल वही मंजधार मुझ को
बनाया उस ने खेवन-हार मुझ को

ज़बाँ की धार से देखा मिला कर
लगी कुछ तेज़ कम तलवार मुझ को

बिठा रक्खा मुझे साए में जिस ने
गिरानी थी वही दीवार मुझ को

जिन्हें है नाज़ अपने फ़ासलों पर
पकड़ने दें ज़रा रफ़्तार मुझ को

कभी होती न फिर लड़ने की हिम्मत
मिली अब तक न ऐसी हार मुझ को

किसी ने भेज कर काग़ज़ की कश्ती
बुलाया है समुंदर पार मुझ को

कभी डूबी न तेरी नाव 'राही'
सिखाया तैरना बे-कार मुझ को