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वही जोश-ए-हक़-शनासी वही अज़्म-ए-बुर्द-बारी | शाही शायरी
wahi josh-e-haq-shanasi wahi azm-burd-bari

ग़ज़ल

वही जोश-ए-हक़-शनासी वही अज़्म-ए-बुर्द-बारी

जुर्म मुहम्मदाबादी

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वही जोश-ए-हक़-शनासी वही अज़्म-ए-बुर्द-बारी
न बदल सका ज़माना मिरी ख़ू-ए-वज़ा-दारी

वही मय-कदा है लेकिन नहीं अब वो कैफ़-बारी
गए हम मज़ाक़ ले के मिरा लुत्फ़-ए-बादा-ख़्वारी

हो ज़बान जिस के मुँह में वो न आए अंजुमन में
कहीं रख न दे सितम-गर यही शर्त-ए-राज़-दारी

कभी हँसते हँसते रोना कभी रोते रोते हँसना
कोई क्या समझ सकेगा भला मस्लहत हमारी

मैं ज़माने भर के ता'ने न ख़मोश हो के सुनता
जो जुनून-ए-इश्क़ होता मिरा फ़े'ल-ए-इख़्तियारी

मय-ए-आशिक़ी से तौबा है जुनून-ए-पारसाई
कहीं ले न डूबे वाइ'ज़ तुझे ज़ो'म-ए-होशियारी

न पहुँच सका जहाँ तक कभी पा-ए-किब्र-ओ-दानिश
वहीं 'जुर्म' ले गई है मुझे मेरी ख़ाकसारी