वही जिंस-ए-वफ़ा आख़िर फ़राहम होती जाती है
मोहब्बत की हक़ीक़त भी मुसल्लम होती जाती है
है उन की आमद-ए-मौसीक़ियत-अंदाज़ का धोका
फुवारें गुनगुनाती हैं छमा-छम होती जाती है
तिरी चाहत ने ऐसी रूह-ए-ज़िंदा फूँक दी मुझ में
कि मेरी ज़िंदगी शौक़-ए-मुजस्सम होती जाती है
सिमट कर आ गईं तारीकियाँ बज़्म-ए-तसव्वुर में
मसर्रत और ख़ुशी की जोत मद्धम होती जाती है
वफ़ा के साज़ पर गाता हूँ नग़्मे ज़िंदगानी के
मिरी आवाज़ आवाज़-ए-दो-आलम होती जाती है
ये हाल अपना हुआ है शिद्दत-ए-ख़तरात-ए-पैहम से
तहफ़्फ़ुज़ की जो थी उम्मीद अब कम होती जाती है
हमारा साज़-ए-दिल ये आज तुम ने किस तरह छेड़ा
कि हर इक साँस इक आवाज़-ए-मातम होती जाती है
जवानी उठ रही है और नज़र माइल है झुकने पर
ये कैसी कश्मकश सी उन में पैहम होती जाती है
ग़ज़ल
वही जिंस-ए-वफ़ा आख़िर फ़राहम होती जाती है
बीएस जैन जौहर