वही हुआ कि ख़ुद भी जिस का ख़ौफ़ था मुझे
चराग़ को जला के बस धुआँ मिला मुझे
कभी मिटा सका न कोई दूसरा मुझे
शिकस्त दे गई मगर मिरी अना मुझे
जवाब इस सवाल का भी दे ज़रा मुझे
उड़ा के लाई है यहाँ पे क्यूँ हवा मुझे
हरी-भरी सी शाख़ पर खिला हुआ गुलाब
न जाने एक ख़ार क्यूँ चुभा गया मुझे
उस अजनबी से वास्ता ज़रूर था कोई
वो जब कभी मिला तो बस मिरा लगा मुझे
अभी न मुझ को टोकिए अभी तो ज़िंदगी
सुना रही है गीत रोज़ इक नया मुझे
ये मुद्दतों के बाद जो कही ग़ज़ल 'हिलाल'
वो कौन है जो आज याद आ गया मुझे
ग़ज़ल
वही हुआ कि ख़ुद भी जिस का ख़ौफ़ था मुझे
हिलाल फ़रीद