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वही है गर्दिश-ए-दौराँ वही लैल-ओ-नहार अब भी | शाही शायरी
wahi hai gardish-e-dauran wahi lail-o-nahaar ab bhi

ग़ज़ल

वही है गर्दिश-ए-दौराँ वही लैल-ओ-नहार अब भी

अख़लाक़ बन्दवी

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वही है गर्दिश-ए-दौराँ वही लैल-ओ-नहार अब भी
रहा करता है रोज़-ओ-शब किसी का इंतिज़ार अब भी

कभी दिन भर तिरी बातें कभी यादों भरी रातें
तिरी फ़ुर्क़त में जीने के बहाने हैं हज़ार अब भी

तिरा जल्वा जो पा जाती चमन में जा के इठलाती
भिकारन बन के बैठी है तिरे दर पर बहार अब भी

ख़ुशी हर-चंद है तारी गई ग़म की गिराँ-बारी
छलक जाती हैं आँखें आदतन बे-इख़्तियार अब भी

हुए हैं मुंतशिर वर्ना सितमगर तुम से क्या डरना
हमारी ठोकरों में है तुम्हारा इक़्तिदार अब भी

अगर 'अख़लाक़' से मिलते मोहब्बत के चमन खिलते
न बनती बज़्म-ए-याराँ एक गाह-ए-कार-ज़ार अब भी