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वफ़ा की शान वो लेकिन कभी मिरे न हुए | शाही शायरी
wafa ki shan wo lekin kabhi mere na hue

ग़ज़ल

वफ़ा की शान वो लेकिन कभी मिरे न हुए

अमीता परसुराम 'मीता'

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वफ़ा की शान वो लेकिन कभी मिरे न हुए
है मेरी जान वो लेकिन कभी मिरे न हुए

उन्हीं का ज़िक्र ग़ज़ल भी वही फ़साना भी
सुख़न की आन वो लेकिन कभी मिरे न हुए

नशा है उन की सदा का कि धड़कनें मेरी
रहा गुमान वो लेकिन कभी मिरे न हुए

गुलों में रंग उन्हीं से महक महक उन से
चमन की शान वो लेकिन कभी मिरे न हुए

वही हैं शम्स ओ क़मर बहर ओ बर मिरे 'मीता'
हैं इक जहान वो लेकिन कभी मिरे न हुए