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वफ़ा के दाग़ को दिल से मिटा नहीं सकता | शाही शायरी
wafa ke dagh ko dil se miTa nahin sakta

ग़ज़ल

वफ़ा के दाग़ को दिल से मिटा नहीं सकता

शाग़िल क़ादरी

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वफ़ा के दाग़ को दिल से मिटा नहीं सकता
ये वो चराग़ है तूफ़ाँ बुझा नहीं सकता

मुझे कुछ ऐसी पिलाई है चश्म-ए-साक़ी ने
सुरूर जिस का कभी दिल से जा नहीं सकता

किसी की चीन-ए-जबीं को समझ दिल-ए-मुज़्तर
ख़फ़ा वो हैं कि तो उल्फ़त छुपा नहीं सकता

क़फ़स क़फ़स है गुलों से सजा करे सय्याद
चमन का लुत्फ़ असीरी में आ नहीं सकता

कभी इस उजड़े चमन में बहार आएगी
ये 'क़ादरी' के गुमाँ में भी आ नहीं सकता