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वफ़ा के बराबर जफ़ा चाहता हूँ | शाही शायरी
wafa ke barabar jafa chahta hun

ग़ज़ल

वफ़ा के बराबर जफ़ा चाहता हूँ

जिगर जालंधरी

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वफ़ा के बराबर जफ़ा चाहता हूँ
तिरा हौसला देखना चाहता हूँ

हर इक दिल में हो इंतिहा की मोहब्बत
मैं इस दौर की इब्तिदा चाहता हूँ

पलक की झपक भी गवारा नहीं है
बराबर तुझे देखना चाहता हूँ

हर इक साँस ज़ंजीर लगने लगी है
मैं ये सिलसिला तोड़ना चाहता हूँ

ज़माने के ग़म याद आने लगे हैं
तिरा ग़म तुझे सौंपना चाहता हूँ

कोई बे-मुरव्वत गले मिल रहा है
तुझे जज़्ब-ए-दिल पूजना चाहता हूँ

'जिगर' फूल शो'ले उगलने लगे हैं
गुलिस्ताँ को अब छोड़ना चाहता हूँ