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वार हुआ कुछ इतना गहरा पानी का | शाही शायरी
war hua kuchh itna gahra pani ka

ग़ज़ल

वार हुआ कुछ इतना गहरा पानी का

शाहिद मीर

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वार हुआ कुछ इतना गहरा पानी का
निकला चट्टानों से रस्ता पानी का

देखा ख़ून तो आँखों से आँसू निकले
जोड़ गया दोनों को रिश्ता पानी का

तीरों की बौछाड़ भी सहना है मुझ को
मेरे हाथ में है मश्कीज़ा पानी का

उड़ती रेत पे लिखना है तफ़्सीर उसे
जिस ने समझ लिया है लहजा पानी का

पिघला सोना आँखों में भर लेता हूँ
रंग जो हो जाता है सुनहरा पानी का

आँखों में जितने आँसू थे ख़ुश्क हुए
क़हत है अब के दरिया दरिया पानी का

चलता हूँ बे-आब ज़मीनों पर 'शाहिद'
आँखों में फिरता है दरिया पानी का