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वार हर एक मिरे ज़ख़्म का हामिल आया | शाही शायरी
war har ek mere zaKHm ka hamil aaya

ग़ज़ल

वार हर एक मिरे ज़ख़्म का हामिल आया

नज़र जावेद

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वार हर एक मिरे ज़ख़्म का हामिल आया
अपनी तलवार के मैं ख़ुद ही मुक़ाबिल आया

बादबानों ने हर इक सम्त बदल कर देखी
कोई मंज़र न नज़र सूरत साहिल आया

गर्द होने ने ही महमेज़ किया मेरा सफ़र
मेरा रस्ता मिरी दीवार में हाइल आया

इस फ़ुसूँ की कोई तौज़ीह नहीं हो पाती
इस के हाथों मैं भला कैसे मिरा दिल आया

दर्द से जोड़ लिया साज़ ने रिश्ता अपना
और फिर सोज़ पहन कर तिरी पायल आया

एक तख़रीब तवातुर से रही दिल में मिरे
इक तसलसुल सा मिरे हाल में शामिल आया

जिस का अंजाम हुआ उस की शुरूआत न थी
राह पर आ न सका जो सर-ए-मंज़िल आया

ज़िंदा रहने के तक़ाज़ों ने मुझे मार दिया
सर पे 'जावेद' अजब अहद-ए-मसाइल आया