वाक़िआ कोई तो हो जाता सँभलने के लिए
रास्ता मुझ को भी मिलता कोई चलने के लिए
क्यूँ न सौग़ात समझ कर मैं उसे करता क़ुबूल
भेजते ज़हर वो मुझ को जो निगलने के लिए
इतनी सर्दी है कि मैं बाँहों की हरारत माँगूँ
रुत ये मौज़ूँ है कहाँ घर से निकलने के लिए
चाहिए कोई उसे नाज़ उठाने वाला
दिल तो तय्यार है हर वक़्त मचलने के लिए
अब तो 'फ़ारूक़' इसी हाल में ख़ुश रहते हैं
वक़्त है पास कहाँ अपने बदलने के लिए
ग़ज़ल
वाक़िआ कोई तो हो जाता सँभलने के लिए
ज़ुबैर फ़ारूक़