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वाइ'ज़ की कड़वी बातों को कब ध्यान में अपने लाते हैं | शाही शायरी
waiz ki kaDwi baaton ko kab dhyan mein apne late hain

ग़ज़ल

वाइ'ज़ की कड़वी बातों को कब ध्यान में अपने लाते हैं

अंजुम मानपुरी

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वाइ'ज़ की कड़वी बातों को कब ध्यान में अपने लाते हैं
ये रिंद-ए-बला-नोश ऐसे हैं सुनते हैं और पी जाते हैं

हम आप से जो कुछ कहते हैं वो बिल्कुल झूट ग़लत इक दम
और आप जो कुछ फ़रमाते हैं बे-शुबह बजा फ़रमाते हैं

दीवाना समझ कर छेड़ के वो सुनते हैं हमारी बातों को
हम मतलब की कह जाते हैं वो सोच के कुछ रह जाते हैं

मजबूर-ए-मोहब्बत की हालत बेगाना-ए-उल्फ़त क्या जाने
हम ग़ैरों के ता'ने सुनते हैं और सुन कर चुप रह जाते हैं

गर्दन है झुकी नज़रें नीची और लब पे है उन के तबस्सुम भी
है क़ाबिल-ए-दीद वो शोख़ी भी जिस वक़्त कि वो शरमाते हैं

बेहोश पड़े हैं इश्क़ में और सर है किसी के ज़ानू पर
तदबीरें लाख करे कोई अब होश में हम कब आते हैं

काम 'अंजुम' का जो तमाम किया ये आप ने वाक़ई ख़ूब किया
कम-बख़्त इसी के लाएक़ था अब आप अबस पछताते हैं