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वाइज़-ए-शहर ख़ुदा है मुझे मा'लूम न था | शाही शायरी
waiz-e-shahr KHuda hai mujhe malum na tha

ग़ज़ल

वाइज़-ए-शहर ख़ुदा है मुझे मा'लूम न था

सय्यद आबिद अली आबिद

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वाइज़-ए-शहर ख़ुदा है मुझे मा'लूम न था
यही बंदे की ख़ता है मुझे मा'लूम न था

ग़म-ए-दौराँ का मुदावा न हुआ पर न हुआ
हाथ में किस के शिफ़ा है मुझे मा'लूम न था

नग़्मा-ए-नय भी न हो बाँग-ए-बत-ए-मय भी न हो
ये भी जीने की अदा है मुझे मा'लूम न था

मैं समझता था जिसे हैकल ओ मेहराब ओ कुनिश्त
मेरा नक़्श-ए-कफ़-ए-पा है मुझे मा'लूम न था

अपने ही साज़ की आवाज़ पर हैराँ था मैं
ज़ख़्मा-ए-साज़ नया है मुझे मा'लूम न था

जिस की ईमा पे किया शैख़ ने बंदों को हलाक
वही बंदों का ख़ुदा है मुझे मा'लूम न था

ख़ुत्बा तरग़ीब-ए-हलाकत का रवा है ऐ दोस्त
शेर कहने की सज़ा है मुझे मा'लूम न था

शब-ए-हिज्राँ की दराज़ी से परेशान न था
ये तिरी ज़ुल्फ़-ए-रसा है मुझे मा'लूम न था

वो मुझे मश्वरा-ए-तर्क-ए-वफ़ा देते थे
ये मोहब्बत की अदा है मुझे मा'लूम न था

चेहरा खोले नज़र आती थी उरूस-ए-गुल-नार
मुँह पे शबनम की रिदा है मुझे मा'लूम न था

कुफ़्र ओ ईमाँ की हदें किस ने तअ'य्युन की थीं
इस पे हंगामा बपा है मुझे मा'लूम न था

यही मार-ए-दो-ज़बाँ मेरा लहू चाट गया
रहनुमा एक बला है मुझे मा'लूम न था

अजब अंदाज़ से था कोई ग़ज़ल-ख़्वाँ कल रात
'आबिद'-ए-शोला-नवा है मुझे मा'लूम न था