वा'दा-ख़िलाफ़ कितने हैं ऐ रश्क-ए-माह आप
सच तो ये है कि झूटों के हैं बादशाह आप
दफ़्तर सियाह करते हैं क्यूँ कातिब-ए-अमल
हूँ मग़रिब गुनाहों का मैं रू-सियाह आप
हम से तो दिल में आप के अब तक न घर हुआ
कर लेते हैं दिलों में ये किस तरह राह आप
ये गह भी कफ़्श-ख़ाना है आख़िर हुज़ूर का
तशरीफ़ याँ भी लाया करें गाह गाह आप
महशर तलक रहेगा इन आँखों को शौक़-ए-दीद
देखें कि अब दिखाते हैं ता-चंद राह आप
तश्बीह नाम आँखों की है सूझना मुहाल
सारी बयाज़ करते हैं ना-हक़ सियाह आप
कुछ हुस्न ही हैं अफ़सर-ए-ख़ूबाँ नहीं हुज़ूर
हैं मुल्क-ए-आन-ओ-नाज़ के भी बादशाह आप
आरिज़ अभी हैं रूप पे ख़त आने दीजिए
कर लीजिएगा फ़र्क़-ए-सफ़ेद-ओ-सियाह आप
क्यूँ उस ने कू-ए-यार से बाहर निकाले पाँव
मजनूँ हुआ है हाथ से अपने तबाह आप
कलिमा पढ़े हुज़ूर का देखे जो सामरी
रखते हैं ऐसी सेहर की चश्म-ओ-निगाह आप
सब आशिक़ों के एक से होते नहीं चैन
खोटा खरा परखने की रखिए निगाह आप
दरमानदों का है कौन ब-जुज़ उन के दस्त-गीर
अपने अपाहिजों को वो लेंगे निबाह आप
मुझ रू-सियह की है ये दुआ वक़्त-ए-बाज़-पुर्स
रखिएगा अपने लुत्फ़-ओ-करम पर निगाह आप
उल्फ़त का क्या यही है नतीजा जहान में
आशिक़ को क़त्ल करते हैं क्यूँ बे-गुनाह आप
दिल दे के बहर-ए-फ़िक्र में हो ग़ोता-ज़न अबस
दरिया-ए-इश्क़ की नहीं पाएँगे थाह आप
अज़्म-ए-सफ़र तो मुल्क-ए-अदम का है ऐ 'क़लक़'
कुछ अपने साथ ले भी चले ज़ाद-ए-राह आप
ग़ज़ल
वा'दा-ख़िलाफ़ कितने हैं ऐ रश्क-ए-माह आप
अरशद अली ख़ान क़लक़