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वा'दा है कि जब रोज़-ए-जज़ा आएगा | शाही शायरी
wada hai ki jab roz-e-jaza aaega

ग़ज़ल

वा'दा है कि जब रोज़-ए-जज़ा आएगा

अंजुम आज़मी

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वा'दा है कि जब रोज़-ए-जज़ा आएगा
तू अपने ही जल्वों में घिरा आएगा

ता-हश्र यूँही मुंतज़िर-ए-दीद रहूँ
चुपके से कभी आ के बता, आएगा

मैं नामा-ए-आमाल खुला रक्खूँगा
रहमत को तिरी जोश सिवा आएगा

हसरत-गह-ए-आलम में तमन्ना का क़दम
इल्ला की तरफ़ सूरत-ए-ला आएगा

ख़ाली भी तो कर ख़ाना-ए-दिल दुनिया से
इस घर में मिरी जान ख़ुदा आएगा

दरिया में बहुत लहर हैं ख़्वाबीदा अभी
जागेंगी तो तूफ़ान बड़ा आएगा

महफ़िल में सभी दोस्त नहीं आते हैं
दुश्मन भी कोई दोस्त-नुमा आएगा

अब ताब न लाऊँगा ये अंदेशा है
मंज़र जो कोई होश-रुबा आएगा

निकलो भी कभी सूद-ओ-ज़ियाँ से वर्ना
कूचे में तिरे कौन भला आएगा