उट्ठे जिस बज़्म से तुम ग़म का समाँ छोड़ आए
दिए महफ़िल से उठा लाए धुआँ छोड़ आए
एक टूटा हुआ बे-कार सफ़ीना हम हैं
हमें अब सैल-ए-बला चाहे जहाँ छोड़ आए
आज सर फूटेगा रोएगी न दीवार तेरी
शहर से दूर हमें अहल-ए-जहाँ छोड़ आए
हँस के जी-भर के ज़माने कि जुनूँ हार गया
नासेहा ख़ुश हो कि हम कू-ए-बुताँ छोड़ आए
मेरे हाथों की लकीरें थीं वो राहें ऐ दोस्त
मेरे हाथों को तिरे हाथ जहाँ छोड़ आए
न चला बा'द हमारे कोई राह-ए-ग़म में
जिसे हर-गाम पे इक संग-ए-गिराँ छोड़ आए
दिन बहारों के पलट आए 'मुसव्विर' लेकिन
जाने उस जान-ए-बहाराँ को कहाँ छोड़ आए
ग़ज़ल
उट्ठे जिस बज़्म से तुम ग़म का समाँ छोड़ आए
मुसव्विर सब्ज़वारी