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उट्ठे जिस बज़्म से तुम ग़म का समाँ छोड़ आए | शाही शायरी
uTThe jis bazm se tum gham ka saman chhoD aae

ग़ज़ल

उट्ठे जिस बज़्म से तुम ग़म का समाँ छोड़ आए

मुसव्विर सब्ज़वारी

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उट्ठे जिस बज़्म से तुम ग़म का समाँ छोड़ आए
दिए महफ़िल से उठा लाए धुआँ छोड़ आए

एक टूटा हुआ बे-कार सफ़ीना हम हैं
हमें अब सैल-ए-बला चाहे जहाँ छोड़ आए

आज सर फूटेगा रोएगी न दीवार तेरी
शहर से दूर हमें अहल-ए-जहाँ छोड़ आए

हँस के जी-भर के ज़माने कि जुनूँ हार गया
नासेहा ख़ुश हो कि हम कू-ए-बुताँ छोड़ आए

मेरे हाथों की लकीरें थीं वो राहें ऐ दोस्त
मेरे हाथों को तिरे हाथ जहाँ छोड़ आए

न चला बा'द हमारे कोई राह-ए-ग़म में
जिसे हर-गाम पे इक संग-ए-गिराँ छोड़ आए

दिन बहारों के पलट आए 'मुसव्विर' लेकिन
जाने उस जान-ए-बहाराँ को कहाँ छोड़ आए