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उट्ठे ग़ुबार-ए-शोर-ए-नफ़स तो वहशत मत करना | शाही शायरी
uTThe ghubar-e-shor-e-nafas to wahshat mat karna

ग़ज़ल

उट्ठे ग़ुबार-ए-शोर-ए-नफ़स तो वहशत मत करना

मोहम्मद अहमद रम्ज़

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उट्ठे ग़ुबार-ए-शोर-ए-नफ़स तो वहशत मत करना
दश्त-ए-दरूं से हिजरत कैसी हिजरत मत करना

दरिया सब्ज़ा फूल सितारे अच्छी ख़्वाहिश है
पत्थर काँटे धूप गर्द से नफ़रत मत करना

इक सच की आवाज़ में हैं जीने के हज़ार आहंग
लश्कर की कसरत पे न जाना बैअत मत करना

नेज़ा-ए-सुब्ह पे ले कर चलना कल का सूरज
शब में मगर ऐलान-ए-नवेद-ए-नुसरत मत करना

मैं तो सब कुछ देख रहा हूँ क्या क्या है उस पार
मैं जो कहूँ शीशे का फ़लक है हैरत मत करना

गेंद सी है बे-वज़्न ये दुनिया मेरी ठोकर में
मैं जो कहूँ तुम इस को उछालो जुरअत मत करना

'रम्ज़' समुंदर की गहराई मेरा सर-ए-अंगुश्त
मैं जो कहूँ उतरो पानी में उजलत मत करना