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उतरे तिलिस्म शब के उजालों पे रात-भर | शाही शायरी
utre tilism shab ke ujalon pe raat-bhar

ग़ज़ल

उतरे तिलिस्म शब के उजालों पे रात-भर

समद अंसारी

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उतरे तिलिस्म शब के उजालों पे रात-भर
क़ुर्बां हुई है सुब्ह चराग़ों पे रात-भर

ज़ुल्मत में अपनी डूब गईं दिन की बस्तियाँ
सूरज तमाम चमके सितारों पे रात-भर

उतरे नहीं शबों में उड़ानों के हौसले
बैठे रहे परिंद भी शाख़ों पे रात-भर

इक लौ नहीं नसीब ग़रीबान-ए-शहर को
शमएँ जली हैं कितनी मज़ारों पे रात-भर

ढलती रही निगाह में चेहरों की चाँदनी
नाज़िल हुए यक़ीन गुमानों पे रात-भर

पैराहन-ए-जमाल है रख़्त-ए-बरहनगी
पहने गए हैं जिस्म लिबासों पे रात-भर

ख़ुशबू में जज़्ब हो गईं महताबियाँ 'समद'
शबनम हुई निसार गुलाबों पे रात-भर