उठिए तो कहाँ जाइए जो कुछ है यहीं है
बाहर तिरे घर के तो न दुनिया है न दीं है
हम हैं कि सर-ए-नक़्श-ए-क़दम सैकड़ों सज्दे
वो है कि जहाँ देखिए बस चीं-ब-जबीं है
सहरा में फिराती है मुझे ख़ाना-ख़राबी
ये ढूँड रहा हूँ कि मिरा घर भी यहीं है
आती नहीं नज़दीक ख़यालों के ये दुनिया
वो बज़्म भी या रब कोई फ़िरदौस-ए-बरीं है
ता हद्द-ए-तख़य्युल फ़क़त इक जल्वा है या दिल
दुनिया में हमारी न फ़लक है न ज़मीं है
जी भर के ज़रा देख तो लें हुस्न के जल्वे
फिर किस को उन्हें छोड़ के जीने का यक़ीं है
वो दर्द-ए-दरूँ जिस्म में यूँ फैल गया है
पड़ता है जहाँ हाथ समझता हूँ यहीं है
रहता हूँ 'सुहा' अहल-ए-हरम में भी नुमायाँ
होते हैं इशारे ये ख़राबात-नशीं है
ग़ज़ल
उठिए तो कहाँ जाइए जो कुछ है यहीं है
सुहा मुजद्ददी