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उठी कुछ ऐसे बदन की ख़ुश्बू | शाही शायरी
uThi kuchh aise badan ki KHushbu

ग़ज़ल

उठी कुछ ऐसे बदन की ख़ुश्बू

मोहम्मद अल्वी

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उठी कुछ ऐसे बदन की ख़ुश्बू
सिमट गई पैरहन की ख़ुश्बू

सहर हुई तो अजब अदा से
कली में उतरी किरन की ख़ुश्बू

हवाओं से दोस्ती न करना
लुटा न देना चमन की ख़ुश्बू

मज़े उड़ाओगे हिजरतों के
लिए फिरोगे वतन की ख़ुश्बू

अँधेरी रातों में देख लेना
दिखाई देगी बदन की ख़ुश्बू

ये कौन 'अल्वी' चला गया है
समेट कर अंजुमन की ख़ुश्बू