उठाए दोश पे तारीख़-ए-हादसात-ए-जहाँ
गुज़र रहा है दयार-ए-हयात से इंसाँ
बिछा रहा है फ़ज़ाओं में दाम-ए-काहकशाँ
तिरे गुदाज़ बदन का तबस्सुम-ए-पिन्हाँ
लबों पे लाख लगाए कोई सुकूत की मोहर
मगर ख़मोशी न होगी जराहतों की ज़बाँ
भड़क उठे न कहीं फिर चराग़-ए-ज़ख़्म की लौ
सँभल सँभल के सुनाओ हदीस-ए-शहर-ए-बुताँ
धुआँ धुआँ सी मिली है फ़ज़ा-ए-शहर-ए-जुनूँ
बुझी है रात गए जब भी मशअ'ल-ए-ज़िंदाँ
ये वो जहाँ है कि हर शहर-ए-संग-ओ-ख़िश्त के बा'द
क़दम क़दम पे है 'इशरत' दयार-ए-शीशा-गराँ
ग़ज़ल
उठाए दोश पे तारीख़-ए-हादसात-ए-जहाँ
इशरत ज़फ़र