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उठा भी दिल से अगर मेरी चश्म-ए-तर में रहा | शाही शायरी
uTha bhi dil se agar meri chashm-e-tar mein raha

ग़ज़ल

उठा भी दिल से अगर मेरी चश्म-ए-तर में रहा

क़ाज़ी एहतिशाम बछरौनी

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उठा भी दिल से अगर मेरी चश्म-ए-तर में रहा
ख़ुदा का शुक्र है तूफ़ान घर का घर में रहा

न जाने कौन सी उस में कशिश थी पोशीदा
तमाम-उम्र वो चेहरा मिरी नज़र में रहा

सितम-शिआ'र से हम जीते-जी ये क्यूँ कह दें
कि हौसला न हमारे दिल-ओ-जिगर में रहा

न रोक पाऊँगा हरगिज़ मैं तेरी रुस्वाई
तू अश्क बन के अगर मेरी चश्म-ए-तर में रहा

वो मेरी तरह भी ख़ाना-ख़राब क्यूँ रहता
बना के दिल को मिरे घर वो अपने घर में रहा

फ़ना के बा'द भी की है तिरी क़दम-बोसी
मैं ख़ाक हो के भी तेरी ही रहगुज़र में रहा

गया जो ताज मिली बा-कमाल दरवेशी
ज़माना यूँ भी मिरे हल्क़ा-ए-असर में रहा

ज़रूर हो न हो तू था मुझ ही में पोशीदा
ये ज़ौक़-ए-सज्दा हमेशा जो सर के सर में रहा

गया जो मंज़िल-ए-मक़्सूद तक जो तू दीवाना
ये अहल-ए-होश हमेशा अगर-मगर मैं रहा

है 'एहतिशाम' ज़माने में बढ़ के एक से एक
वो कौन है कि जो यकता किसी हुनर में रहा