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उठ सुब्ह हुई मुर्ग़-ए-चमन नग़्मा-सरा देख | शाही शायरी
uTh subh hui murgh-e-chaman naghma-e-sara dekh

ग़ज़ल

उठ सुब्ह हुई मुर्ग़-ए-चमन नग़्मा-सरा देख

मुस्तफ़ा ख़ाँ शेफ़्ता

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उठ सुब्ह हुई मुर्ग़-ए-चमन नग़्मा-सरा देख
नूर-ए-सहर-ओ-हुस्न-ए-गुल-ओ-लुत्फ़-ए-हवा देख

दो-चार फ़रिश्तों पे बला आएगी ना-हक़
ऐ ग़ैरत-ए-नाहीद न हो नग़्मा-सरा देख

मिन्नत से मनाते हैं मुझे मैं नहीं मनता
औज़ा-ए-मलक देख और अतवार-ए-गदा देख

गर बुल-हवसी यूँ तुझे बावर नहीं आती
इक मर्तबा अग़्यार के क़ाबू में तू आ देख

इतनी न बढ़ा पाकी-ए-दामाँ की हिकायत
दामन को ज़रा देख ज़रा बंद-ए-क़बा देख

इक दम के न मिलने पे नहीं मिलते हैं मुझ से
ऐ 'शेफ़्ता' मायूसी-ए-उम्मीद-फ़ज़ा देख