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उठ गई उस की नज़र मैं जो मुक़ाबिल से उठा | शाही शायरी
uTh gai uski nazar main jo muqabil se uTha

ग़ज़ल

उठ गई उस की नज़र मैं जो मुक़ाबिल से उठा

शाद आरफ़ी

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उठ गई उस की नज़र मैं जो मुक़ाबिल से उठा
वर्ना उठने के लिए ग़ैर भी महफ़िल से उठा

बैठ कर लुत्फ़ न तू साया-ए-बातिल से उठा
चल के आराम उठाना है तो मंज़िल से उठा

आ के महफ़िल में तिरी कौन मिरे दिल से उठा
कोई उट्ठा भी मिरी तरह तो मुश्किल से उठा

साथ आता है तो लहरों के थपेड़े मत गिन
मौज से लुत्फ़ उठाना है तो साहिल से उठा

हाथ में जान उठाना तो बड़ी बात नहीं
कोई पत्थर कोई काँटा रह-ए-मंज़िल से उठा

क़ुर्ब-ए-साहिल के तकब्बुर में जो कश्ती डूबी
कोई छोटा सा बबूला भी न साहिल से उठा

बे-दिली हाए तमन्ना कि न दुनिया है न दीं
जिस तरफ़ तुझ को उठाना है क़दम दिल से उठा

वो जो नौ-वारिद-ए-उल्फ़त हैं उन्हें क्या मालूम
किस लिए आज मैं संग-ए-दर-ए-क़ातिल से उठा

शैख़ पर हाथ उठाने के नहीं हम क़ाएल
हाथ उठाने की जो ठानी है तो बातिल से उठा

आज उस कुफ़्र-ए-सरापा ने सँवारे गेसू
आज बिखरा हुआ पर्दा रुख़-ए-बातिल से उठा

'शाद' इक रहबर-ए-मक्कार से रहज़न अच्छा
कोई नुक़सान उठाना है तो जाहिल से उठा