उठ चुका है पड़ाव ख़्वाबों का
हम हैं और सिलसिला सराबों का
आगही है सलीब जज़्बों की
ज़िंदगी है सफ़र अज़ाबों का
फ़िक्र ये है सुकूँ से रात कटे
ज़िक्र चलता है इंक़िलाबों का
शहर अपना हरा-भरा इक बाग़
चलते फिरते हुए गुलाबों का
चाँदनी के सभी चराग़ों में
ख़ून जलता है आफ़्ताबों का
ख़्वाहिशों का ग़ुलाम निकला 'यास'
शाहज़ादा किसी के ख़्वाबों का
ग़ज़ल
उठ चुका है पड़ाव ख़्वाबों का
नूर मोहम्मद यास