उसी से आए हैं आशोब आसमाँ वाले
जिसे ग़ुबार समझते थे कारवाँ वाले
मैं अपनी धुन में यहाँ आँधियाँ उठाता हूँ
मगर कहाँ वो मज़े ख़ाक-ए-आशियाँ वाले
मुझे दिया न कभी मेरे दुश्मनों का पता
मुझे हवा से लड़ाते रहे जहाँ वाले
मिरे सराब-ए-तमन्ना पे रश्क था जिन को
बने हैं आज वही बहर-ए-बे-कराँ वाले
मैं नाला हूँ मुझे अपने लबों से दूर न रख
मुझी से ज़िंदा है तू मेरे जिस्म-ओ-जाँ वाले
ये मुश्त-ए-ख़ाक 'ज़फ़र' मेरा पैरहन ही तू है
मुझे ज़मीं से डराएँ न कहकशाँ वाले
ग़ज़ल
उसी से आए हैं आशोब आसमाँ वाले
ज़फ़र इक़बाल