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उसी की ज़ात को है दाइमन सबात-ओ-क़याम | शाही शायरी
usi ki zat ko hai daiman sabaat-o-qayam

ग़ज़ल

उसी की ज़ात को है दाइमन सबात-ओ-क़याम

नज़ीर अकबराबादी

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उसी की ज़ात को है दाइमन सबात-ओ-क़याम
क़ादीर ओ हय ओ करीम ओ मुहैमिन ओ मिनआम

बुरूज बारा में ला कर रखी वो बारीकी
कि जिस को पहुँचे न फ़िक्रत न दानिश ओ औहाम

इधर फ़रिश्ता-ए-कर्रोबी और उधर ग़िल्माँ
क़लम को लौह पे बख़्शी है ताक़त-ए-इर्क़ाम

ये दो हैं शम्स ओ क़मर और साथ उन के यार
अतारद ओ ज़ुहल ओ ज़ोहरा मुश्तरी बहराम

जो चाहें एक पलक ठहरें ये सो ताक़त क्या
फिरा करेंगे ये आग़ाज़ से ले ता-अंजाम

बशर जो चाहे कि समझे उन्हें सो क्या इम्काँ
है याँ फ़रिश्तों की आजिज़ अक़ूल और इफ़हाम

निकाले उन से गुल ओ मेवा शाख़ ओ बर्ग-ओ-बार
सब उस के लुत्फ़-ओ-करम के हैं आम ये इनआम

इसी के बाग़ से दिल शाद हो के खाते हैं
छुहारे किशमिश ओ इंजीर ओ पिस्ता ओ बादाम

चमक रहा है उसी की ये क़ुदरतों का नूर
बहर-ज़माँ ओ बहर-साअत ओ बहर-हंगाम

कि उस का शुक्र करें शब से मा-ब-रोज़ अदा
इताअत उस की बजा लावें सुब्ह से ता-शाम

'नज़ीर' नुक्ता समझ मेहर-ओ-फ़ज़्ल-ए-ख़ालिक़ को
इसी के फ़ज़्ल से दोनों जहाँ में है आराम