उसी के क़ुर्ब में रह कर हरी भरी हुई है
सहारे पेड़ के ये बेल जो खड़ी हुई है
अभी से छोटी हुई जा रही हैं दीवारें
अभी तो बेटी ज़रा सी मिरी बड़ी हुई है
बना के घोंसला चिड़िया शजर की बाँहों में
न जाने किस लिए आँधी से डरी हुई है
अभी तो पहले सफ़र की थकन है पाँव में
कि फिर से जूती पे जूती मिरी पड़ी हुई है
नई रुतों के मुक़द्दस बुलावे तो हैं मगर
सलीब वादों की जो रह में इक गड़ी हुई है
मैं हाथ बाँधे हुए लौट आई हूँ घर में
कि मेरे पर्स में इक आरज़ू मरी हुई है
अगर बिछड़ने का उस से कोई मलाल नहीं
'शबाना' अश्क से फिर आँख क्यूँ भरी हुई है
ग़ज़ल
उसी के क़ुर्ब में रह कर हरी भरी हुई है
शबाना यूसुफ़