उसे ये हक़ है कि वो मुझ से इख़्तिलाफ़ करे
मगर वजूद का मेरे भी ए'तिराफ़ करे
उसे तो अपनी भी सूरत नज़र नहीं आती
वो अपने शीशा-ए-दिल की तो गर्द साफ़ करे
किया जो उस ने मिरे साथ ना-मुनासिब था
मुआफ़ कर दिया मैं ने ख़ुदा मुआफ़ करे
वो शख़्स जो किसी मस्जिद में जा नहीं सकता
तो अपने घर में ही कुछ रोज़ एतकाफ़ करे
वो आदमी तो नहीं है सियाह पत्थर है
जो चाहता है कि दुनिया मिरा तवाफ़ करे
वो कोहकन है न है उस के हाथ में तेशा
मगर ज़बान से जब चाहे वो शिगाफ़ करे
मैं उस के सारे नक़ाइस उसे बता दूँगा
अना का अपने बदन से जुदा ग़िलाफ़ करे
जिसे भी देखिए पत्थर उठाए फिरता है
कोई तो हो मिरी वहशत का ए'तिराफ़ करे
मैं इस की बात का कैसे यक़ीं करूँ 'एजाज़'
जो शख़्स अपने उसूलों से इंहिराफ़ करे
ग़ज़ल
उसे ये हक़ है कि वो मुझ से इख़्तिलाफ़ करे
एजाज़ रहमानी