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उसे हम भी भूल बैठे न कर उस का ज़िक्र तू भी | शाही शायरी
use hum bhi bhul baiThe na kar us ka zikr tu bhi

ग़ज़ल

उसे हम भी भूल बैठे न कर उस का ज़िक्र तू भी

महशर बदायुनी

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उसे हम भी भूल बैठे न कर उस का ज़िक्र तू भी
कोई चाक अगर हो ज़ाहिर तो करें उसे रफ़ू भी

चलो चल के पूछ आएँ कि ख़िज़ाँ की इस गली में
कभी आ चुका हो शायद कोई सैल-ए-रंग-ओ-बू भी

उड़ी तिश्नगी के कूचे में वो गर्द इक तरफ़ से
हम उठा सके न ताक़ों से गिरे हुए सुबू भी

अभी कैसे भूल जाऊँ मैं ये वाक़िआ सफ़र में
अभी गर्द-ए-रफ़्तगाँ भी है जगह जगह लहू भी

इस इरम इरम ज़मीं पर कि बहार उमँड रही है
कोई फूल अगर खिला दे मिरी बे-नुमू भी

तिरी अंजुमन की रौनक़ में न फ़र्क़ आएगा कुछ
हमें चुप बिठाने वाले कभी हम से गुफ़्तुगू भी

मेरे ख़ाल-ओ-ख़द को सूरत का फ़रोग़ देने वालो
किसी नक़्श में दिखाओ मिरा ज़ख़्म-ए-शोला-रू भी