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उसे भुलाए हुए मुझ को इक ज़माना हुआ | शाही शायरी
use bhulae hue mujhko ek zamana hua

ग़ज़ल

उसे भुलाए हुए मुझ को इक ज़माना हुआ

महताब हैदर नक़वी

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उसे भुलाए हुए मुझ को इक ज़माना हुआ
कि अब तमाम मिरे दर्द का फ़साना हुआ

हुआ बदन मिरा दुश्मन अदू हुई मिरी रूह
मैं किस के दाम में आया हवस-निशाना हुआ

यही चराग़ जो रौशन है बुझ भी सकता था
भला हुआ कि हवाओं का सामना न हुआ

कि जिस की सुब्ह महकती थी शाम रौशन थी
सुना है वो दर-ए-दौलत ग़रीब-ख़ाना हुआ

वो लोग ख़ुश हैं कि वाबस्ता-ए-ज़माना हैं
मैं मुतमइन हूँ कि दर उस का मुझ पे वा न हुआ