उस ज़ुल्फ़ की तौसीफ़ बताई नहीं जाती
इक लम्बी कहानी है सुनाई नहीं जाती
दिल है कि मरा जाता है दीदार की ख़ातिर
हम हैं कि उधर आँख उठाई नहीं जाती
अश्कों से कभी सोज़-ए-जिगर कम नहीं होता
ये आग तो पानी से बुझाई नहीं जाती
दिल ये तो तिरा दाग़-ए-मुहब्बत न छुपेगा
आईने से तस्वीर छुपाई नहीं जाती
यारब कहाँ ले जाऊँ मैं हसरत-ज़दा दिल को
ये लाश तो अब मुझ से उठाई नहीं जाती
आहों से कमी ग़म में न होगी दिल-ए-नादाँ
फूँकों से कभी आग बुझाई नहीं जाती
क्यूँ अश्क-ए-नदामत न बहाएँ 'जिगर' आँखें
जो दिल में लगी है वो बुझाई नहीं जाती

ग़ज़ल
उस ज़ुल्फ़ की तौसीफ़ बताई नहीं जाती
जिगर जालंधरी