उस से मेरा तो कोई दूर का रिश्ता भी नहीं
और ये भी है कि वो शख़्स पराया भी नहीं
वो मिरे ग़म से हो अंजान कुछ ऐसा भी नहीं
वो मिरा हाल मगर पूछने आया भी नहीं
ग़ैर को क़ुर्ब मयस्सर है मगर ऐ हमदम
मेरी ख़ातिर तो तिरा दूर का जल्वा भी नहीं
उम्र भर साथ निभाने का करूँ क्या वा'दा
ज़िंदगी अब तो मुझे ख़ुद पे भरोसा भी नहीं
इस क़दर मुझ को रहा आबरू-ए-ग़म का ख़याल
रोना चाहा तो मगर फूट के रोया भी नहीं
एक तेरी जो तमन्ना न रही ऐ हमदम
मेरे दिल में तो किसी शय की तमन्ना भी नहीं
एक वो हैं कि उन्हें आई है आराम की नींद
एक मैं हूँ कि कभी चैन से सोया भी नहीं
बाज़ आते भी नहीं ज़ुल्म-ओ-सितम से अपने
देख पाते हो मगर मेरा तड़पना भी नहीं
छोड़े जाती है मगर ये भी तुझे याद रहे
ज़िंदगी तेरे सिवा अब कोई अपना भी नहीं
किस तरह फैल गई बू-ए-हिना हर जानिब
उस के बारे में अभी मैं ने तो सोचा भी नहीं
मुझ को हालात ने बेहिस ही बना कर छोड़ा
मेरे सीने में ये दिल है कि धड़कता भी नहीं
भूल के सारे सितम हम तो चले जाते 'ज़फ़र'
पर हमें उस ने कभी दिल से बुलाया भी नहीं

ग़ज़ल
उस से मेरा तो कोई दूर का रिश्ता भी नहीं
ज़फ़र अंसारी ज़फ़र