उस ने पूछा भी मगर हाल छुपाए गए हम
अपने ही आप में इक हश्र उठाए गए हम
ज़िंदगी देख कि एहसान तिरे कितने हैं
दिल के हर दाग़ को आईना बनाए गए हम
फिर वही शाम वही दर्द वही अपना जुनूँ
जाने क्या याद थी वो जिस को भुलाए गए हम
किन दरीचों के चराग़ों से हमें निस्बत थी
कि अभी जल नहीं पाए कि बुझाए गए हम
उम्र भर हादसे ही करते रहे इस्तिक़बाल
वक़्त ऐसा था कि सीने से लगाए गए हम
रास्ते दौड़े चले जाते हैं किन सम्तों को
धूप में जलते रहे साए बिछाए गए हम
दश्त-दर-दश्त बिखरते चले जाते हैं 'शनास'
जाने किस आलम-ए-वहशत में उठाए गए हम
ग़ज़ल
उस ने पूछा भी मगर हाल छुपाए गए हम
फ़हीम शनास काज़मी