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उस को ये ज़िद है कि रह जाए बदन सर न रहे | शाही शायरी
usko ye zid hai ki rah jae badan sar na rahe

ग़ज़ल

उस को ये ज़िद है कि रह जाए बदन सर न रहे

मज़हर इमाम

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उस को ये ज़िद है कि रह जाए बदन सर न रहे
घूमती जाए ज़मीं और कोई मेहवर न रहे

उस ने हिम्मत जो बढ़ाई भी तो रक्खा ये लिहाज़
कोई बुज़दिल न बने कोई दिलावर न रहे

उस ने इस तरह उतारी मिरे ग़म की तस्वीर
रंग महफ़ूज़ तो रह जाएँ प मंज़र न रहे

उस ने किस नाज़ से बख़्शी है मुझे जा-ए-पनाह
यूँ कि दीवार सलामत हो मगर घर न रहे

अब के आँधी भी चली जब तो सलीक़े से चली
यूँ कि रह जाए शजर शाख़-ए-समर-वर न रहे

अब ये साज़िश है कि लिक्खे न कोई क़िस्सा-ए-दिल
लफ़्ज़ रह जाएँ मगर कोई सुख़न-वर न रहे