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उस की जाम-ए-जम आँखें शीशा-ए-बदन मेरा | शाही शायरी
uski jam-e-jam aankhen shisha-e-badan mera

ग़ज़ल

उस की जाम-ए-जम आँखें शीशा-ए-बदन मेरा

अब्दुल्लाह कमाल

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उस की जाम-ए-जम आँखें शीशा-ए-बदन मेरा
उस की बंद मुट्ठी में सारा बाँकपन मेरा

मैं ने अपने चेहरे पर सब हुनर सजाए थे
फ़ाश कर गया मुझ को सादा पैरहन मेरा

दिल भी खो गया शायद शहर के सराबों में
अब मिरी तरह से है दर्द बे-वतन मेरा

एक दश्त-ए-ख़ामोशी अब मिरा मुक़द्दर है
याद बे-सदा तेरी ज़ख़्म बे-चमन मेरा

आओ आज हम दोनों अपना अपना घर चुन लें
तुम नवाह-ए-दिल ले लो ख़ित्ता-ए-बदन मेरा

रोज़ अपने ख़्वाबों का ख़ून करता रहता हूँ
हाए किन ग़नीमों से आ पड़ा है रन मेरा

गाँव की हवाओं ने फिर संदेसा भेजा है
मुंतज़िर तुम्हारा है ख़ुशबुओं का बन मेरा