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उस की चश्म-ए-करम थी हयात-आफ़रीं ख़ुश्क पत्तों पे जैसे निखार आ गया | शाही शायरी
uski chashm-e-karam thi hayat-afrin KHushk patton pe jaise nikhaar aa gaya

ग़ज़ल

उस की चश्म-ए-करम थी हयात-आफ़रीं ख़ुश्क पत्तों पे जैसे निखार आ गया

जामी रुदौलवी

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उस की चश्म-ए-करम थी हयात-आफ़रीं ख़ुश्क पत्तों पे जैसे निखार आ गया
आरज़ू के शगूफ़े महकने लगे दिल की बे-चैनियों को क़रार आ गया

दश्त-ए-ग़ुर्बत में भी ज़ानू-ए-दोस्त पर मेरी तन्हाई को ये तअस्सुर हुआ
भूला-भटका हुआ इक मुसाफ़िर कोई यक-ब-यक जैसे अपने दयार आ गया

उम्र-भर फ़िक्र-ए-दुनिया में ग़लताँ रहे मारे मारे फिरे मुफ़्त रुस्वा हुए
ज़िंदगी दफ़अ'तन ज़िंदगी बन गई चार आँखें हुईं दिल में प्यार आ गया

बाँकपन उन का मशहूर था मेरी दीवानगी पर हमेशा हँसे
लेकिन आँखों से आँसू छलकने लगे सामने जब हमारा मज़ार आ गया

जानता हूँ कुदूरत बुरी चीज़ है आप से दुश्मनी की तवक़्क़ो' न थी
दूर होना बहुत इस का दुश्वार है दिल के आईने में जब ग़ुबार आ गया

ज़ख़्म भरने लगे दर्द थम सा गया इक सहारा मिला दिल को ढारस बंधी
उस के क़ौल-ओ-क़सम में भी इक बात थी जो भी उस ने कहा ए'तिबार आ गया