उस के नज़दीक ग़म-ए-तर्क-ए-वफ़ा कुछ भी नहीं 
मुतमइन ऐसा है वो जैसे हुआ कुछ भी नहीं 
अब तो हाथों से लकीरें भी मिटी जाती हैं 
उस को खो कर तो मिरे पास रहा कुछ भी नहीं 
चार दिन रह गए मेले में मगर अब के भी 
उस ने आने के लिए ख़त में लिखा कुछ भी नहीं 
कल बिछड़ना है तो फिर अहद-ए-वफ़ा सोच के बाँध 
अभी आग़ाज़-ए-मोहब्बत है गया कुछ भी नहीं 
मैं तो इस वास्ते चुप हूँ कि तमाशा न बने 
तू समझता है मुझे तुझ से गिला कुछ भी नहीं 
ऐ 'शुमार' आँखें इसी तरह बिछाए रखना 
जाने किस वक़्त वो आ जाए पता कुछ भी नहीं
        ग़ज़ल
उस के नज़दीक ग़म-ए-तर्क-ए-वफ़ा कुछ भी नहीं
अख्तर शुमार

