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उस के लहजे का वो उतार चढ़ाओ | शाही शायरी
uske lahje ka wo utar chaDhao

ग़ज़ल

उस के लहजे का वो उतार चढ़ाओ

अहमद जावेद

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उस के लहजे का वो उतार चढ़ाओ
रात की नर्म रौ नदी का बहाओ

उस की आँखों के वस्फ़ क्या लिक्खूँ
जैसे ख़्वाबों का बे-कराँ ठहराओ

उन निगाहों की गुफ़्तुगू में है
नींद में गुम हवाओं का उलझाओ

उस बदन की नज़ाकतें मत पूछ
शीशा-ए-गुल में चाँद का लहराओ

नींद की वादियों में पिछले पहर
एक लै एक नग़्मा एक अलाव

ऐसी तंहाई का मुदावा क्या
सात दरियाओं में अकेली नाव

उन लबों की वो बोसा बोसा उठान
और पलकों का नश्शा नश्शा झुकाओ

उस गली उस दयार की ख़ुश-बू
ऐ सुबुक-सैर नर्म-गाम हवाओ

नौजवानी में मौत की ख़्वाहिश
तुम ही समझा सको तो कुछ समझाओ

जाने वो ग़ुंचा किस चमन का है
जिस में गुम है बहार का फैलाओ

रात कहती है मुझ को प्यार से देख
मुझ में है चश्म-ए-यार का गहराओ

शोला-ए-जाँ है बुझने को 'जावेद'
और दिल में दहक रहा है अलाव