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उस के हर रंग से क्यूँ शोला-ज़नी होती है | शाही शायरी
uske har rang se kyun shoala-zani hoti hai

ग़ज़ल

उस के हर रंग से क्यूँ शोला-ज़नी होती है

जोश मलसियानी

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उस के हर रंग से क्यूँ शोला-ज़नी होती है
उन की तस्वीर तो काग़ज़ की बनी होती है

अक़्ल ओ मज़हब की जब आपस में ठनी होती है
फिर तो हर राह-बरी राहज़नी होती है

याद आती है जब उन की निगह-ए-नाज़ मुझे
एक बर्छी मिरे सीने पे तनी होती है

किस तरह दूर हों आलाम-ए-ग़रीब-उल-वतनी
ज़िंदगी ख़ुद भी ग़रीब-उल-वतनी होती है

फल उसे आए न आए ये मुक़द्दर की है बात
छाँव तो नख़्ल-ए-तमन्ना की घनी होती है

शिकवे तौक़ीर-ए-मोहब्बत भी हुआ करते हैं
मगर उस वक़्त जब आपस में बनी होती है

मैं भी पीता हूँ मुझे इस से कुछ इंकार नहीं
वो मगर दामन-ए-तक़्वा में छनी होती है

ज़ब्त-ए-गिर्या से कहीं चाक न हो जाए जिगर
बूँद आँसू की भी हीरे की कनी होती है

इक तुम्हारी ही नज़ाकत है जो है तुम पे गिराँ
वर्ना हर फूल में नाज़ुक-बदनी होती है

इस क़दर ग़ैर है क्यूँ हाल तुम्हारा ऐ 'जोश'
कभी दिल पर तो कभी दम पे बनी होती है