उस के गुलाबी होंट तो रस में बसे लगे
लेकिन बदन के ज़ाइक़े बे-कैफ़ से लगे
टूटे क़दम क़दम पे जो अपनी लचक के साथ
वो दलदलों में ज़ात की मुझ को फँसे लगे
तमसील बन गए हैं समुंदर की झाग की
सहरा-ए-ग़म की राख में जो भी धँसे लगे
जिन का यक़ीन राह-ए-सुकूँ की असास है
वो भी गुमान-ए-दश्त में मुझ को फँसे लगे
हम ले के बे-अमानी को जंगल में आ गए
दिल को जो शहर-ए-ख़ूबाँ में कुछ वसवसे लगे
ग़ज़ल
उस के गुलाबी होंट तो रस में बसे लगे
हनीफ़ तरीन